Wednesday, March 23, 2011

kasam

ये मेरी दोस्त, मेरी यार, मेरी हमराज़, हमदर्द॥ कुल मिलाकर ले दे कर एक यही है जिस से मैंने अपने जीवन का हर लम्हा बांटा है॥ आज बाँट रही हूँ मेरी दोस्त की एक बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आपसे॥ और जानती हूँ आप भी इसे उतना ही पसंद करेंगे जितना कि मैं...


मेरे क़रीब न आओ तुम्हे खुदा की क़सम
बाखुदा यूँ न जलाओ तुम्हे खुदा की कसम

मुझे एक उम्र लगी है तुम्हे भुलाने में
न फिर से याद दिलाओ तुम्हे खुदा की क़सम

खुद को खोकर अंधेरों में, मैं गुम होकर ही खुश हूँ
अब कोई लौ न जलाओ तुम्हे खुदा की क़सम

तुम्हे रुखसत किया जबसे, ये पलकें नम हैं तबसे
इन्हें फिर से न रुलाओ तुम्हे खुदा की क़सम

बहुत मुश्किल से सिमटे, बैठे हैं खुद से लिपटकर यूँ
न फिर तूफ़ान सा लाओ तुम्हे खुदा की क़सम

कहीं ऐसा न हो, देखें तुम्हें और फिर बिखर जाएँ
बिना देखे चले जाओ तुम्हें खुदा की क़सम॥


सांझ..